जिंदगी में मौज लो, बुढ़ापे में तो भजन कर ही लेंगे। क्या यह सोच सही है ? जो बच्चे कम उम्र से ही भक्ति करने लग जाते हैं, क्या माँ बाप को उनको रोकना चाहिए?
"जिंदगी में अभी तो मौज लो, भजन-पूजा तो बुढ़ापे में कर लेंगे…" — यह सोच आज की पीढ़ी में आम होती जा रही है। लेकिन क्या यह सच में सही सोच है?
हिन्दू शास्त्रों में यह विचार व्यापक रूप से पाया जाता है कि आध्यात्मिक जीवन और साधना का आरंभ बचपन से ही करना चाहिए। ब्लकि आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत माँ के गर्भ से ही हो जानी चाहिये।
ऐसा माना जाता है कि मनुष्य की आदतें और दृष्टिकोण बचपन में ही विकसित होते हैं, और इसलिए आध्यात्मिक मार्ग पर चलने की नींव भी इसी समय रखी जानी चाहिए। शास्त्रों में कई संदर्भ हैं जो इस विचार का समर्थन करते हैं।
1. गर्भ संस्कार:
हिंदू धर्म का एक बहुत गहरा और वैज्ञानिक पहलू यह है कि आध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत जन्म के बाद नहीं, बल्कि माँ के गर्भ में ही हो जाती है। महाभारत के प्रसंग में जब अभिमन्यु अपनी माँ सुभद्रा के गर्भ में था, तब उसने चक्रव्यूह भेदन की शिक्षा श्रीकृष्ण से सुनी थी। इससे यह सिद्ध होता है कि गर्भस्थ शिशु भी आध्यात्मिक ज्ञान को ग्रहण कर सकता है।
इसका अर्थ यह है कि कोई भी बच्चा केवल तब से नहीं सीखता जब वह बोलने-चलने लगता है, बल्कि वह माँ के विचारों, भावनाओं और दिनचर्या से गर्भ में ही जुड़ता है। इसीलिए कहा गया है:
- "गर्भ संस्कार" केवल परंपरा नहीं, एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है।
2. बाल्यावस्था में संस्कार:
हिन्दू धर्म में जीवन के सोलह संस्कारों का वर्णन है, जो व्यक्ति के जीवन को पवित्र और आध्यात्मिक बनाने के लिए निर्धारित किए गए हैं। इनमें से प्रारंभिक संस्कार, जैसे नामकरण, अन्नप्राशन, और उपनयन, बच्चों को आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा देने पर जोर देते हैं।
उपनयन संस्कार (जनेऊ) को विशेष रूप से महत्वपूर्ण माना गया है क्योंकि यह बालक को गुरुकुल भेजने और वेदाध्ययन की शुरुआत करने का प्रतीक है। यह संस्कार विशेष रूप से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्णों के लड़कों के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। यह संस्कार बच्चे के जीवन में एक नए अध्याय की शुरुआत का प्रतीक है, जब उसे आधिकारिक तौर पर शिक्षा और धार्मिक कर्तव्यों का अधिकार मिलता है। इसे "द्विज" (दूसरी बार जन्म लेने वाला) बनने की प्रक्रिया भी कहा जाता है।
● श्रीमद्भगवद्गीता:
गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को कर्म और धर्म का महत्व समझाते हुए कहा है:
>"बाल्यकाल से ही व्यक्ति को कर्मयोग, ज्ञानयोग, और भक्तियोग की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए ताकि वह जीवन के उत्तरार्ध में बिना किसी बंधन के मोक्ष की प्राप्ति कर सके।"
>"बुद्धिमान व्यक्ति को बाल्यकाल से ही भगवान की भक्ति आरंभ कर देनी चाहिए।"
● भगवद गीता:
भगवद गीता (4.38) में कहा गया है-
"न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते"
> "इस संसार में ज्ञान से बढ़कर कोई पवित्र वस्तु नहीं है।"
और यह ज्ञान जितनी जल्दी मिले, उतना अच्छा है।
● वशिष्ठ योग:
ऋषि वशिष्ठ ने राम को बताया था कि जीवन के प्रारंभिक चरणों में ही आत्म-ज्ञान और ध्यान की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए ताकि जीवन के आगे के चरणों में यह स्वाभाविक हो सके और व्यक्ति अपनी आत्मा की सच्ची प्रकृति को पहचान सके।
● मनुस्मृति:
मनुस्मृति में भी यह कहा गया है कि व्यक्ति को अपनी युवावस्था में ही धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष के चार पुरुषार्थों का पालन करना चाहिए। यह शिक्षा बाल्यावस्था से ही शुरू होनी चाहिए ताकि जीवन का हर चरण संतुलित और सार्थक बने।
● महाभारत:
महाभारत के शांतिपर्व में भी यह बताया गया है कि धर्म, अर्थ, और मोक्ष का ज्ञान और अभ्यास बाल्यावस्था से ही आरंभ होना चाहिए। भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को शिक्षा देते हुए कहा था कि धर्म का पालन और अध्यात्मिक साधना यदि बचपन से की जाए, तो व्यक्ति वृद्धावस्था में जीवन के बंधनों से मुक्त हो सकता है।
अगर आप बुजुर्गों के बीच बैठकर उनकी बातें सुनें तो आपको समझ में आएगा कि वे सिर्फ़ दुनिया की बातें करते हैं। उनकी चर्चाएँ सिर्फ़ उनके परिवार, संपत्ति, दुख और सांसारिक समस्याओं के बारे में होती हैं। उनके सपने भी इन्हीं सांसारिक मामलों के बारे में होते हैं। जब मृत्यु का समय आता है, उस समय भी वे इन्हीं बातों के बारे में सोचते हैं। मृत्यु के दूत उन्हें पीटकर ले जाते हैं।
कुछ लोग सोचते हैं कि बुढ़ापे में भक्ति करेंगे। अगर तुमने सारी जिंदगी सांसारिक बातों के बारे में सोचने में बिता दी तो बुढ़ापे में ध्यान कैसे करोगे? अगर तुम्हें बुढ़ापे में पिस्तौल दे दी जाए और कहा जाए कि निशाना लगाओ तो क्या तुम लगा पाओगे? नहीं न! तुम्हें गोली लोड करना नहीं आएगा; तुम्हें गोली चलाना भी नहीं आएगा क्योंकि तुमने कभी इसका अभ्यास नहीं किया है। लेकिन सेना में जो लोग हैं वे आंखों पर पट्टी बांधकर भी निशाना लगा सकते हैं क्योंकि उन्होंने इसका अभ्यास किया है। जब सामान्य निशाना भी अभ्यास के बिना नहीं लग सकता तो सभी इन्द्रियों को एकाग्र करना और मन को भगवान के चरणों में लगाना अभ्यास के बिना कैसे हो सकता है? हमें परमात्मा की दयालुता का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए, ब्लकि उनका सम्मान करना चाहिए।
अगर आपका बच्चा आपको बिल्कुल भी भाव न दे, बुढ़ापे में आपकी सेवा न करें, और बोले कि अभी उसके पास time नहीं है आपके बारे में सोचने की तो आपको कैसा लगेगा सोचो?
जैसे आप अपने बच्चों को हाथ पकड़ कर चलाना सिखाते हो, समाज में उठना बैठना सीखते हो और तमाम चीजे अपने बुढ़ापे तक सीखाते रहते हो, बस वैसे ही उस परमात्मा के बच्चे हम सब है, फिर चाहे शरीर से बुढ़े क्यूँ न हो जाए। परमात्मा हमारा शरीर नहीं ब्लकि आत्मा को देखता हैं। वो हमें बहुत कुछ सिखाना चाहता है परंतु हम संसार के भोगों में व्यस्त हो जाते हैं तो उनके निर्देशन(directions) सुन और समझ नहीं पाते।
इस मायावी संसार में परमात्मा में मन लगाने के लिए अभ्यास की आवश्यकता है। फिर वही अभ्यास संस्कार बन जाता है। प्रह्लाद जी ने पाँच वर्ष की आयु में अपने मित्रों को उपदेश दिया था। भक्ति का अभ्यास बचपन से ही करना चाहिए। यदि आप सोचते हैं कि गृहस्थ जीवन जीएँगे, जीवन के सुख भोगेंगे और बाद में संन्यासी बन जाएँगे, तो यह गलत है। यदि आप वृद्धावस्था में संन्यास करते भी हैं, तो कुछ महीनों में अवश्य ही वापस आ जाएँगे, क्योंकि मन बदलना कठिन है, इसके लिए अभ्यास की आवश्यकता होती है। और आपका मन और अभ्यास तो बचपन से ही माया,काम, क्रोध,लोभ मोह,अहंकार में लगा हुआ है। यही अभ्यास फिर आपके संस्कार बन जाते है।
यदि आप स्वयं प्रयास नहीं करेंगे, तो माया आपको भगवान की शरण में जाने के लिए बाध्य कर देगी। युवा अवस्था से ही भगवान में लीन हो जाना अच्छा है। यदि आप विवाहित जीवन जीते हैं, तो भी भक्ति/ज्ञान का अभ्यास करें।
आप सोचो, क्या जो लोग बुढ़ापे में भक्ति का अभ्यास करने की सलाह देते हैं, क्या वे स्वयं भक्त हैं? या फिर क्या वो आध्यात्मिक रूप से ज्ञानी हैं?
लोगों को भ्रम है कि वे खेलने-खाने की उम्र में हैं, भक्ति करने की नहीं। ऐसी कोई अवस्था नहीं है, जहाँ भक्ति अपने आप हो जाए और आसक्ति नष्ट हो जाए। आप अपना बाहरी रूप बदल सकते हैं, लेकिन मन का परिवर्तन अभ्यास से ही होगा। अगर आपने जीवन भर वैराग्य का अभ्यास नहीं किया, घर में रहते हुए आसक्ति से मुक्त होने का प्रयास नहीं किया, भक्ति करने का प्रयास नहीं किया, या भगवान के प्रति समर्पित नहीं हुए, तो इस भ्रम में न रहें कि आपमें तुरंत कोई परिवर्तन आ जाएगा।
आजकल के युवा, जिनकी उम्र आमतौर पर 15 से 25 वर्ष के बीच होती है, एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जहाँ भोगवादी संस्कृति ने उन्हें बुरी तरह से प्रभावित किया है। क्लबिंग(clubbing) करना, ड्रग्स लेना, सिगरेट पीना आदि उनके जीवन का हिस्सा बन गया है। वे लोग इसे "Cool बनना" कहते है। यह स्थिति केवल व्यक्तिगत नहीं है, बल्कि सामूहिक रूप से समाज के लिए एक गंभीर चिंता का विषय बन चुकी है। ऐसे में यदि कोई एक बच्चा भक्ति/ज्ञान मार्ग पर चलना चाहता है, तो माता-पिता को उसे रोकना नहीं चाहिए, उसे बाँधना नहीं चाहिए। इससे उसको मानसिक तनाव हो सकता है जो उसके स्वास्थ के लिए हानिकारक है। ब्लकि आपको ऐसे बच्चे का सम्मान करना चाहिए, आपको गर्व होना चाहिए कि आपके घर ऐसी श्रेष्ठ आत्मा पैदा हुई। वर्ना उन माता-पिता से जाके पूछो जो अपने बच्चों की गंदी आदतों से परेशान हैं।
तो वो माता-पिता जिनके बच्चे आध्यात्मिक मार्ग पर आगे बढ़ना चाहते हैं उनसे मैं ये कहना चाहती हूं की आप उनको रोके नहीं क्यूंकि इससे आगे चलकर आपको भी फायदा होगा, उस बच्चे के धीरे-धीरे संस्कार परिवर्तन होंगे, माँ बाप की इज्जत करेगें, वर्ना आजकल के बच्चे माँ बाप की इज्जत करना जानते ही नहीं। असली संस्कार एवं धर्म का ज्ञान आपको हमारे सनातन आध्यात्मिक ग्रंथों में ही मिलेगा, ये मॉडर्न स्कूलों से नहीं जो सनातन धर्म को बिल्कुल भी नहीं मानते।
भक्ति/ज्ञान का मार्ग एक स्वस्थ, सकारात्मक और मानसिक शांति प्रदान करने वाला विकल्प है, जो बच्चों को सही दिशा में मार्गदर्शन कर सकता है।
✅️माँ-बाप का कर्तव्य:
अगर कोई बच्चा कम उम्र में ही भक्ति, ध्यान, मंत्र-जप या गीता-श्लोकों में रुचि लेने लगे, तो यह पिछले जन्मों के संस्कारों का फल हो सकता है। ऐसे में माँ-बाप को उसे रोकना नहीं चाहिए, बल्कि:
•उसे प्रेरित करना चाहिए।
•उसे उसके स्तर पर सरल भाषा में आध्यात्मिक बातें समझानी चाहिए।
•उसे नम्रता और विवेक के साथ संसार में संतुलन बनाए रखना सिखाना चाहिए।
❌ "बुढ़ापे में करेंगे" वाली सोच क्यों गलत है?
•बुढ़ापा कभी निश्चित नहीं होता। मृत्यु की कोई उम्र नहीं होती।
•जब इंद्रियाँ कमजोर हो जाएँ, तब मन को स्थिर करना और ईश्वर का स्मरण करना मुश्किल हो जाता है।
•बिना अभ्यास के अचानक भक्ति करना केवल दिखावा हो सकता है, जबकि जीवन भर का अभ्यास आत्मा को सच में जागृत करता है।
अगर छोटी उम्र से ही भागवत प्राप्ति की मार्ग पर चला जाये, तो आगे का मार्ग बहुत सरल बन सकता है, बिना किसी विकारों के। परंतु आप इसका उल्टा करने जाये; तो अहंकार और वासना बीच में आ सकता है जो आपको डूबा देगी। हो सकता है आप पढ़ लिख कर बहुत ऊँची पोस्ट में आ जाओ परंतु जहां अहंकार होगा तो जितनी तेजी से आप ऊपर गए हों उतनी ही तेजी से आपको नीचे गिरने में समय नहीं लगेगा। विकारों से मुक्त होना एक बहुत कठिन अभ्यास है जिसे भक्ति एवं आत्मज्ञान सरल बना देता हैं।
प्रमुख तर्क:
आदतों का विकास: बचपन में सीखी गई बातें और आदतें जीवन भर के लिए स्थायी हो जाती हैं, वहीं हमारी प्रकृति बन जाती है। यदि इस समय में आध्यात्मिक अभ्यास और ध्यान का बीजारोपण किया जाए, तो वे जीवन भर फलते-फूलते रहते हैं।
मन की निर्मलता: बच्चे स्वाभाविक रूप से निर्मल और निर्दोष होते हैं। उनके मन में कम विकार होते हैं, इसलिए ध्यान और साधना में जल्दी प्रगति कर सकते हैं।
आसक्ति और माया का प्रभाव: जैसे-जैसे व्यक्ति बड़ा होता है, संसारिक बंधनों और कर्तव्यों में उलझ जाता है, जिससे आध्यात्मिक मार्ग पर चलना कठिन हो जाता है।
निष्कर्ष:
भक्ति का कोई “सही समय” नहीं होता, लेकिन "जितना जल्दी, उतना उत्तम" — यही हिंदू धर्म का दृष्टिकोण है।
बचपन से ही अगर आध्यात्मिक दृष्टिकोण विकसित हो जाए, तो न केवल वह बच्चा महान बनता है, बल्कि पूरा परिवार और समाज उससे लाभान्वित होता है।
🌸 संस्कारों की नींव जितनी गहरी होगी, आत्मा उतनी ऊँची उड़ान भरेगी।
परमशांति